भाजपा की सोच

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भारतीय जनता पार्टी ने छत्तीसगढ़ में सत्ता साझा करने का जो मॉडल अपनाया है, उसमें विपक्ष और देश के लिबरल खेमे के लिए एक बड़ी सीख छिपी है। सबक यह है कि जातीय-सामुदायिक पहचान की राजनीति के जरिए भाजपा को मात देने की सोच अब बेबुनियाद हो चुकी है। यह सोच इस समझ पर टिकी है कि भाजपा मुख्य रूप से सवर्ण हिंदुओं की पार्टी है, जिसका अनिवार्य रूप से पिछड़ी और दलित जातियों एवं आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों से अंतर्विरोध है। मुमकिन है कि यह अंतर्विरोध इस रूप में वास्तविक हो कि भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति अंततरू पारंपरिक सामाजिक वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने के मकसद से प्रेरित है। मगर इसका दूसरा पहलू यह है कि अपनी इस परियोजना में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग की अपनी रणनीति के जरिए विभिन्न जातियों और समुदायों को समाहित कर लिया है। इसके लिए जहां उन्हें जरूरी महसूस होता है, वे इन जातियों और समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व देते हैं।
छत्तीसगढ़ में सत्ता बंटवारे के लागू किए गए फॉर्मूले से साफ है कि अपनी हिंदुत्व की परियोजना में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग की अपनी रणनीति के जरिए विभिन्न जातियों और समुदायों को समाहित कर लिया है। छत्तीसगढ़ में एक आदिवासी नेता को मुख्यमंत्री बनाने के साथ-साथ उन्होंने एक ओबीसी और एक सवर्ण को उप-मुख्यमंत्री और एक सवर्ण को विधानसभा स्पीकर बनाने का फॉर्मूला लागू कर किया है। इस तरह उन्होंने चुनाव जिताऊ समीकरण को प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व दे दिया है। इसका संदेश दूसरे राज्यों तक जाएगा। इस बीच आदिवासी समुदाय में अपनी पैठ और गहरी बनाने के लिए लिहाज से आरएसएस से जुड़े जनजाति सुरक्षा मंच ने उन आदिवासियों को जनजाति सूची से हटाने की मुहिम शुरू की है, जो ईसाई बन गए हैँ। इस तरह आदिवासी समुदायों के भीतर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति आगे बढ़ाई जा रही है। अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका चुनावी लाभ भाजपा को ही मिलेगा। इस तरह जातीय या सामुदायिक गोलबंदी अब भाजपा का कारगर सियासी औजार बन गई है। यानी उसने ऐसी रणनीतियों के भरोसे बैठे विपक्ष को उसके ही खेल में मात दे दी है। अब अगर यहां से विपक्ष को फिर से खड़ा होना है, तो उसे नई रणनीति सोचनी होगी। फिलहाल, इस कार्य में विपक्ष और लिबरल बुद्धिजीवी अक्षम नजर आते हैँ। इसलिए भाजपा बेजोड़ बनी हुई है।

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